शाश्वत तीर्थ सम्मेदशिखर महिमा

               तीर्थराज श्री सम्मेदशिखर दिगंबर जैनों का अनादिनिधन शाश्वत सिद्धक्षेत्र है । जहाँ से अनंत तीर्थंकरों ने मोक्षप्राप्त किया है और अनन्तानन्त भव्य जीवों ने भी तपस्या करके इस पर्वतराज से निर्वाणधाम को प्राप्त किया है इसीलिए इसे सिद्धक्षेत्र के रूप में सदा से पूजने की परम्परा रही है। जैन समाज में जन्म लेने वाले प्रत्येक नर-नारी को अपने भव्यत्व की पहचान के लिए सम्मेदशिखर की यात्रा / वंदना करने की प्रेरणा विरासत में पूर्वजों के द्वारा प्राप्त होती है और उन्हें प्रारंभ से ही यह पंक्ति सिखाई जाती है-

             एक बार वन्दे जो कोई, ताहिं नरक पशु गति नहिं होई । अर्थात् सम्मेदशिखर पर्वत की एक बार भी वंदना करने वाले मनुष्य को नरक और पशु गति की प्राप्ति नहीं होती है। श्री देवदत्त यतिवर द्वारा रचित “श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य” नामक ग्रंथ में इस अनादि तीर्थ का बड़ा भारी महत्व वर्णित है। उसमें उन्होंने प्राथमिकरूप में लिखा है कि-

सम्मेदशैलवृत्तान्तो महावीरेण भाषितः ।
गौतमं प्रति भूयः स लोहाचार्येण धीमता ।।

तत्सद्वाक्यानुसारेण देवदत्ताख्यसत्कविः ।
सम्मेदशैल माहात्म्यं प्रकटीकुरुतेधुना ।।

अर्थ -

तीर्थंकर महावीर ने गौतमगणधर के सम्मुख सम्मेदशिखर का वृत्तान्त कहा था। उसे ही फिर से बुद्धि सम्पन्न अष्टम, नवम और दशम अंगधारी आचार्यों में एक आचार्य लोहाचार्य ने कहा। जिनके सद्वाक्यों के अनुसार अपनी बुद्धि व्यवस्थित कर देवदत्त नाम का यह सत्कवि सम्मेदशैल अर्थात् सम्मेदशिखर की महिमा को इस काव्य में प्रगट कर रहा है ।।

तत्रोत्तमे शैलवरे कूटानां विंशतिर्वरा ।
तत्रस्थान्सर्वदा वन्दे तत्प्रमाणाञ्जनेश्वरान् ।।

अर्थ -

क्षेत्रों में सर्वोत्तम श्रेष्ठ पर्वत सम्मेदशिखर पर श्रेयस्कर बीस कूट हैं उन बीसों कुटों पर बीस तीर्थंकर के चरण चिन्ह हैं। मैं उन तीर्थंकरों को सर्वदा नमस्कार करता हूँ ।।

वर्तमान युग में जम्बूद्वीपस्थ भरतक्षेत्र के चौबीस तीर्थंकरों में से बीस तीर्थंकरों ने इस पर्वत के भिन्न-भिन्न कूटों से मोक्ष प्राप्त किया है